स्थापना एवं उद्देश्य
| विवरण |
जानकारी |
| स्थापना वर्ष |
1916 |
| स्थापना स्थान |
नैनीताल |
| मुख्य उद्देश्य |
- कुली बेगार प्रथा का उन्मूलन
- जंगलात कानून में सुधार
- भू-राजस्व में राहत
- शिक्षा, स्वास्थ्य एवं सामाजिक सुधार
- स्थानीय जनता को राजनीतिक जागरूकता
|
| संस्थापक |
तारादत्त गैरोला एवं हरगोविंद पंत |
नोट: कुली बेगार प्रथा में ग्रामीणों को बिना मजदूरी के सरकारी अधिकारियों, सैनिकों या पर्यटकों के लिए सामान ढोना पड़ता था। यह अमानवीय प्रथा कुमाऊं में व्यापक थी।
प्रथम बैठक (1916)
- स्थान: मझेड़ा गांव (अल्मोड़ा के निकट)
- नेतृत्व: राय बहादुर नारायण दत्त छिंदवाल
- विशेषता:
- पहली बार युवा और वृद्ध दोनों पीढ़ी के नेता एक मंच पर आए।
- वृद्ध नेतृत्व: उदारवादी (मॉडरेट) विचारधारा से प्रभावित (गोखले, दादाभाई नौरोजी की लाइन)
- युवा नेतृत्व: बाल गंगाधर तिलक की उग्र राष्ट्रवादी विचारधारा से प्रेरित
- परिणाम: संगठन को औपचारिक रूप देने का निर्णय, भविष्य की रणनीति पर चर्चा।
अधिवेशनों का विस्तृत विवरण
1. प्रथम अधिवेशन (1917)
| विवरण |
जानकारी |
| स्थान |
अल्मोड़ा |
| अध्यक्ष |
जयदत्त जोशी |
| महत्वपूर्ण निर्णय |
- कुमाऊं परिषद के प्रचार-प्रसार की योजना
- लक्ष्मीदत्त शास्त्री को प्रचार सचिव नियुक्त किया गया
- ग्राम पंचायतों एवं स्कूलों में संगठन का विस्तार
|
लक्ष्मीदत्त शास्त्री ने गांव-गांव घूमकर लोगों को जागरूक किया।
2. द्वितीय अधिवेशन (1918)
| विवरण |
जानकारी |
| स्थान |
हल्द्वानी |
| अध्यक्ष |
तारादत्त गैरोला (संस्थापक में से एक) |
| महत्व |
- कुली बेगार के खिलाफ जन जागरण तेज
- महात्मा गांधी के आगमन की प्रतीक्षा में रणनीति
|
3. तृतीय अधिवेशन (1919)
| विवरण |
जानकारी |
| स्थान |
कोटद्वार (गढ़वाल-कुमाऊं सीमा पर) |
| अध्यक्ष |
राय बहादुर बद्रीदत्त जोशी |
| स्वागताध्यक्ष |
तारादत्त गैरोला |
| ऐतिहासिक महत्व |
- हिंदू-मुस्लिम एकता का प्रतीक अधिवेशन
- गुरु-शिष्य परंपरा को सम्मान
- बद्रीदत्त जोशी को “कुमाऊं में हिंदू-मुस्लिम एकता के प्रणेता” कहा जाता है
- मुस्लिम नेता भी सक्रिय रूप से शामिल हुए
|
यह अधिवेशन राष्ट्रीय एकता का संदेश देने में सफल रहा।
4. चतुर्थ अधिवेशन (1920)
| विवरण |
जानकारी |
| स्थान |
काशीपुर |
| अध्यक्ष |
हरगोविंद पंत (संस्थापक में से एक) |
| पृष्ठभूमि |
असहयोग आंदोलन की शुरुआत (1920) के साथ जुड़ा |
| निर्णय |
- गांधीजी के असहयोग आंदोलन में कुमाऊं की भागीदारी
- विद्यालयों का बहिष्कार, स्वदेशी अपनाना
|
5. पंचम अधिवेशन (1923)
| विवरण |
जानकारी |
| स्थान |
टनकपुर (नेपाल सीमा के निकट) |
| अध्यक्ष |
बद्रीदत्त पांडे (कुली बेगार आंदोलन के प्रमुख नेता) |
| महत्व |
- कुली बेगार के खिलाफ निर्णायक लड़ाई की रणनीति
- 1921 में बद्रीदत्त पांडे के नेतृत्व में बागेश्वर कुली बेगार आंदोलन सफल हुआ था – यह अधिवेशन उसकी निरंतरता था
|
नोट- बद्रीदत्त पांडे को कुली बेगार आंदोलन के दौरान कुमांऊँ केसरी की उपाधि दी गए थी l
6. षष्ठम अधिवेशन (1926)
| विवरण |
जानकारी |
| स्थान |
गनियाद्योली, अल्मोड़ा |
| अध्यक्ष |
मुकुंदीलाल (प्रख्यात स्वतंत्रता सेनानी) |
| महत्व |
- क्षेत्रीय समस्याओं का बड़े पैमाने पर समाधान हो चुका था
- कुली बेगार प्रथा समाप्त, जंगलात कानून में सुधार
- राष्ट्रीय आंदोलन में विलय की तैयारी
|
विलय एवं विरासत (1926)
| विवरण |
जानकारी |
| विलय वर्ष |
1926 |
| विलय किसमें |
अल्मोड़ा जिला कांग्रेस कमेटी में |
| कारण |
- मुख्य क्षेत्रीय समस्याएं हल हो चुकी थीं
- राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम में पूर्ण योगदान की आवश्यकता
- गांधीजी के नेतृत्व में कांग्रेस को मजबूत करना
|
नोट 1926 में कुमांऊँ परिषद का विलय अल्मोड़ा कांग्रेस में हो गया था
कुमाऊं परिषद के नेता बाद में कांग्रेस के प्रमुख पदों पर रहे:
- बद्रीदत्त पांडे: उत्तर प्रदेश के मंत्री
- गोविंद बल्लभ पंत: उत्तर प्रदेश के प्रथम मुख्यमंत्री, भारत के गृह मंत्री
- हरगोविंद पंत: स्वतंत्रता सेनानी एवं शिक्षाविद्
कुमाऊं परिषद का योगदान – सारांश
| क्षेत्र |
योगदान |
| कुली बेगार |
पूर्ण उन्मूलन (1921 के बाद कानूनी रूप से समाप्त) |
| जंगलात कानून |
वनों पर स्थानीय अधिकार बढ़े |
| शिक्षा |
अनेक स्कूलों की स्थापना, जागरूकता |
| राष्ट्रीय आंदोलन |
असहयोग, सविनय अवज्ञा में सक्रिय भागीदारी |
| सामाजिक सुधार |
हिंदू-मुस्लिम एकता, जातिवाद विरोध |
महत्वपूर्ण व्यक्तित्व (संक्षेप में)
| नाम |
योगदान |
| तारादत्त गैरोला |
संस्थापक, द्वितीय एवं स्वागताध्यक्ष |
| हरगोविंद पंत |
संस्थापक, चतुर्थ अधिवेशन अध्यक्ष |
| बद्रीदत्त पांडे |
कुली बेगार आंदोलन के नायक, पंचम अधिवेशन अध्यक्ष |
| बद्रीदत्त जोशी |
हिंदू-मुस्लिम एकता के प्रणेता |
| मुकुंदीलाल |
अंतिम अधिवेशन अध्यक्ष, विलय में भूमिका |
निष्कर्ष
कुमाऊं परिषद क्षेत्रीय आंदोलन से राष्ट्रीय आंदोलन की ओर बढ़ने का जीवंत उदाहरण है। यह सिद्ध करता है कि स्थानीय मुद्दे राष्ट्रीय स्वतंत्रता से जुड़े होते हैं। 1916 से 1926 तक का यह दस वर्षीय सफर कुमाऊं की जनता को गुलामी की बेड़ियों से मुक्त करने और स्वाभिमान जगाने में सफल रहा।
0 टिप्पणियाँ