कुमाऊं केसरी’ बद्रीदत्त पांडे: स्वतंत्रता संग्राम के महानायक और समाज सुधारक
बद्रीदत्त पांडे, जिन्हें ‘कुमाऊं केसरी’ के नाम से सम्मानित किया गया, उत्तराखंड के स्वतंत्रता संग्राम के एक महानायक, समाज सुधारक और पत्रकार थे। उनका जन्म 15 फरवरी 1882 को हरिद्वार में हुआ था। उनके पिता का नाम विनायक पांडे था। उन्होंने प्रारंभिक शिक्षा अल्मोड़ा में प्राप्त की, जहां स्वामी विवेकानंद के एक प्रेरणादायक भाषण ने उन्हें गहरे रूप से प्रभावित किया। बद्रीदत्त पांडे बचपन से ही भ्रष्टाचार के कट्टर विरोधी थे और भाषण देने और सुनने का उन्हें गहरा शौक था।
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Toggleप्रारंभिक जीवन और पत्रकारिता
बद्रीदत्त पांडे की पत्रकारिता यात्रा 1908 में आरंभ हुई, जब वे इलाहाबाद से प्रकाशित होने वाले अंग्रेजी अखबार ‘लीडर’ के सहायक व्यवस्थापक और संपादक बने। इसके बाद 1910 में उन्होंने देहरादून से प्रकाशित ‘कॉस्मापॉलिटन’ अखबार के संपादक का पद संभाला। 1913 में, वे ‘अल्मोड़ा’ अखबार के संपादक बने और इसे राष्ट्रीय सोच के साथ प्रकाशित किया।
बद्री बद्री दत्त पांडे के समय अल्मोड़ा अखबार ने नई ऊंचाइयां छुई उनके समय अल्मोड़ा अखबार अपने चरमोत्कर्ष पर था अल्मोड़ा अखबार को पढ़ने वाले ग्राहकों की संख्या मेंअत्यधिक वृद्धि हुई बद्री दत्त पांडे ने अल्मोड़ा अखबार के माध्यम से अल्मोड़ा में अंग्रेज अफसर लोमन के शासन की निंदा करी तथा कुली बेगार पर लेख लिखे इससे जिससे अल्मोड़ा अखबार पर जुर्माना लगाया गया और वह बंद हो गया जुर्माने की रकम न चुकाने के कारण वह बंद हो गया l
1918 में, ‘अल्मोड़ा’ अखबार बंद हो गया, लेकिन उन्होंने विजयादशमी के दिन अल्मोड़ा की देशभक्त प्रेस से शक्ति’ नामक साप्ताहिक पत्र का प्रकाशन किया। इस पत्रिका के माध्यम से उन्होंने समाज में व्याप्त बुराइयों, अंग्रेजों के अत्याचारों, और देशप्रेम को जागृत करने का कार्य किया। ‘शक्ति’ पत्रिका ने लोगों के भीतर क्रांति की चिंगारी भड़काई और कुमाऊं के समाज में सुधार के लिए मार्ग प्रशस्त किया।
कुली बेगार प्रथा का अंत
ब्रिटिश शासनकाल में कुमाऊं और गढ़वाल क्षेत्रों में ‘कुली उतार’ और ‘कुली बेगार’ जैसी कुप्रथाएं प्रचलित थीं। ये प्रथाएं भारतीयों के लिए अत्यंत अपमानजनक और अन्यायपूर्ण थीं। बद्रीदत्त पांडे ने इस प्रथा के विरुद्ध सबसे अधिक संघर्ष किया। 1921 में मकर संक्रांति के दिन बागेश्वर में एक ऐतिहासिक अधिवेशन का आयोजन किया गया, जिसमें हजारों लोग इकट्ठे हुए। इस अधिवेशन में पांडे जी ने एक प्रभावशाली भाषण दिया, जिसने जनसमूह को प्रेरित किया।
जनवरी 1921 में, सरयू नदी के तट पर 40,000 लोगों ने बागनाथ की शपथ लेकर ‘कुली बेगार’ प्रथा के खिलाफ विद्रोह का आह्वान किया। उन्होंने अपने नाम दर्ज कुली बेगार के रजिस्टरों को फाड़ कर सरयू नदी में बहा दिया। इस क्रांतिकारी कदम को महात्मा गांधी ने ‘यंग इंडिया’ पत्रिका में ‘रक्तहीन क्रांति’ कहा। इस आंदोलन की सफलता बद्रीदत्त पांडे के साहसी नेतृत्व की गवाही देती है, और इसीलिए उन्हें ‘कुमाऊं केसरी’ की उपाधि से विभूषित किया गया।
राष्ट्रप्रेम और सामाजिक सुधार
बद्रीदत्त पांडे ने केवल स्वतंत्रता संग्राम में ही महत्वपूर्ण भूमिका नहीं निभाई, बल्कि वे सामाजिक सुधार के भी प्रबल समर्थक थे। उन्होंने समाज में व्याप्त कुप्रथाओं और बुराइयों पर प्रहार करते हुए अपने लेखों और भाषणों के माध्यम से लोगों को जागरूक किया। उनका लेखन समाज के विभिन्न पहलुओं को उजागर करता था और ब्रिटिश शासन के विरुद्ध आवाज़ उठाने का एक महत्वपूर्ण साधन था।
कुमाऊं का इतिहास और गांधीजी से संबंध
बद्रीदत्त पांडे ने ‘कुमाऊं का इतिहास’ नामक प्रसिद्ध पुस्तक की रचना की, जिसमें उन्होंने कुमाऊं के ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और सामाजिक पक्षों को उकेरा। इसके साथ ही, 1929 में जब महात्मा गांधी कुमाऊं दौरे पर आए, तब पांडे जी उनके साथ बागेश्वर गए और एक अत्यंत हृदयस्पर्शी भाषण दिया। उनका भाषण जनमानस को गहराई से छू गया और स्वराज के प्रति उनकी निष्ठा और समर्पण को दर्शाता है।
जीवन की अंतिम अवधि
बद्रीदत्त पांडे को स्वतंत्रता संग्राम के प्रति उनके योगदान के लिए दो स्वर्ण पदकों से सम्मानित किया गया। भारत-चीन युद्ध (1962) के समय उन्होंने इन पदकों को राष्ट्रीय सुरक्षा कोष में दान कर दिया, जो उनके राष्ट्रप्रेम का स्पष्ट प्रतीक है। 13 फरवरी 1965 को बद्रीदत्त पांडे का स्वर्गवास हो गया, लेकिन उनका जीवन और कृतित्व आज भी प्रेरणा का स्रोत बना हुआ है।
निष्कर्ष
बद्रीदत्त पांडे एक सच्चे राष्ट्रभक्त, स्वतंत्रता सेनानी, पत्रकार और समाज सुधारक थे। उनके नेतृत्व में कुमाऊं क्षेत्र में सामाजिक और राजनीतिक जागरूकता की लहर उठी। ‘कुमाऊं केसरी’ के नाम से प्रसिद्ध बद्रीदत्त पांडे ने समाज में अन्याय के खिलाफ लड़ाई लड़ी और अपने जीवन का प्रत्येक क्षण देश और समाज की सेवा में समर्पित किया। उनका योगदान भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में अद्वितीय और अविस्मरणीय है।
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